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कंकाल-अध्याय -२

उपस्थित साधु और भक्तों ने एक-दूसरे का मुँह देखते हुए प्रसन्नता प्रकट की। सहसा महात्मा ने कहा, ऐसा ही उपनिषदों में भी कहा है। सम्भ्रान्त पुरुष सुशिक्षित था, उसके हृदय में यह बात समा गयी कि महात्मा वास्तविक ज्ञान-सम्पन्न महापुरुष हैं। उसने अपने साधु-दर्शन की इच्छा की सराहना की और भक्तिपूर्वक बैठकर 'सत्संग' सुनने लगा। रात हो गयी; जगह-जगह पर अलाव धधक रहे थे। शीत की प्रबलता थी। फिर भी धर्म-संग्राम के सेनापति लोग शिविरों में डटे रहे। कुछ ठहरकर आगन्तुक ने जाने की आज्ञा चाही। महात्मा ने पूछा, 'आप लोगों का शुभ नाम और परिचय क्या है 'हम लोग अमृतसर के रहने वाले हैं, मेरा नाम श्रीचन्द्र है और यह मेरी धर्मपत्नी है।' कहकर श्रीचन्द्र ने युवती की ओर संकेत किया। महात्मा ने भी उसकी ओर देखा। युवती ने उस दृष्टि से यह अर्थ निकाला कि महात्मा जी मेरा भी नाम पूछ रहे हैं। वह जैसे किसी पुरस्कार पाने की प्रत्याशा और लालच से प्रेरित होकर बोल उठी, 'दासी का नाम किशोरी है।' महात्मा की दृष्टि में जैसे एक आलोचक घूम गया। उसने सिर नीचा कर लिया और बोला, 'अच्छा विलम्ब होगा, जाइये। भगवान् का स्मरण रखिये।' श्रीचन्द्र किशोरी के साथ उठे। प्रणाम किया और चले। साधुओं का भजन-कोलाहल शान्त हो गया था। निस्तब्धता रजनी के मधुर क्रोड़ में जाग रही थी। निशीथ के नक्षत्र गंगा के मुकुल में अपना प्रतिबिम्ब देख रहे थे। शांत पवन का झोंका सबको आलिंगन करता हुआ विरक्त के समान भाग रहा था। महात्मा के हृदय में हलचल थी। वह निष्पाप हृदय ब्रह्मचारी दुश्चिन्ता से मलिन, शिविर छोड़कर कम्बल डाले, बहुत दूर गंगा की जलधारा के समीप खड़ा होकर अपने चिरसंचित पुण्यों को पुकारने लगा। वह अपने विराग को उत्तेजित करता; परन्तु मन की दुर्बलता प्रलोभन बनकर विराग की प्रतिद्वन्द्विता करने लगती और इसमें उसके अतीत की स्मृति भी उसे धोखा दे रही थी, जिन-जिन सुखों को वह त्यागने की चिंता करता, वे ही उसे धक्का देने का उद्योग करते। दूर सामने दिखने वाली कलिन्दजा की गति का अनुकरण करने के लिए वह मन को उत्साह दिलाता; परन्तु गंभीर अर्द्धनिशीथ के पूर्ण उज्ज्वल नक्षत्र बाल-काल की स्मृति के सदृश मानस-पटल पर चमक उठते थे। अनन्त आकाश में जैसे अतीत की घटनाएँ रजताक्षरों से लिखी हुई उसे दिखाई पड़ने लगीं। झेलम के किनारे एक बालिका और एक बालक अपने प्रणय के पौधे को अनेक क्रीड़ा-कुतूहलों के जल से सींच रहे हैं। बालिका के हृदय में असीम अभिलाषा और बालक के हृदय में अदम्य उत्साह। बालक रंजन आठ वर्ष का हो गया और बालिका सात की। एक दिन अकस्मात् रंजन को लेकर उसके माता-पिता हरद्वार चल पड़े। उस समय किशोरी ने उससे पूछा, 'रंजन, कब आओगे?' उसने कहा, 'बहुत ही जल्द। तुम्हारे लिए अच्छा-अच्छी गुड़िया लेकर आऊँगा।' रंजन चला गया। जिस महात्मा की कृपा और आशीर्वाद से उसने जन्म लिया था, उसी के चरणों में चढ़ा दिया गया। क्योंकि उसकी माता ने सन्तान होने की ऐसी ही मनौती की थी।

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2 Comments

Mohammed urooj khan

13-Dec-2023 01:56 PM

👌🏾👌🏾👌🏾

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Milind salve

13-Dec-2023 10:33 AM

Nice one

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